भारत की मौजूदा वास्तुकला को अगर किसी एक खाँचे में रखकर देखना चाहें तो यह बेहद मुश्किल होगा क्योंकि इतिहास से वर्तमान तक हज़ारों साँस्कृतिक परतें इस देश की मिट्टी तले मौजूद रही हैं, जिन्होंने यहाँ की इमारतों और वास्तुकला को अपने–अपने ढंग से प्रभावित किया है। आज़ादी के 75 साल बाद अगर आज हम मुड़कर भारतीय वास्तुकला के सफर पर एक नज़र डालते हैं तो प्राचीन और मध्ययुगीन सभ्यता के पदचिह्न हमारी आधुनिक स्थापत्य–कला के पथप्रदर्शक के तौर पर मौजूद रहते हैं। यह कहना जायज़ होगा कि हमारी आधुनिक वास्तुकला की बुनियाद हमारी प्राचीन और मध्यकालीन वास्तुकला पर टिकी है और आज वैश्विक वास्तुकला से प्रभावित होने के साथ–साथ अपनी एक विशिष्ट पहचान गढ़ रही है।
आज़ादी के बाद
आज़ादी के बाद उभरे भारत में एक तरफ जहाँ वास्तुकला की अपार सम्भावनाएँ हिलोरे ले रही थीं वहीं विभाजन के चलते लाहौर, ढाका, पेशावर, कराची और रावलपिंडी जैसे प्रमुख शहरी केंद्रों के खोने का नुक्सान भी हमारी संयुक्त स्मृति में ताज़ा दर्ज था। पंजाब, सिंध और पूर्वी बंगाल के गढ़ खो जाना न सिर्फ राजनैतिक हानि थी बल्कि सांस्कृतिक क्षति भी थी क्योंकि वास्तुकला के लिहाज़ से लाहौर, कराची, ढाका जैसे शहर अपने समय से आगे थे और शाही किला, बादशाही मस्जिद, मोहाटा पैलेस, सेठी मोहल्ला, कर्ज़न हॉल जैसी कई विख्यात इमारतों की पहचान भी थे। आज़ादी के तुरंत बाद इस क्षतिपूर्ति के लिए नई राजधानियाँ बनाने की प्रस्तावना हुई और चंडीगढ़, भुवनेश्वर, जयपुर और ऑरोविल जैसे नए शहर भारत की स्काइलाइन बनकर उभरे।
नया दौर, नए शहर
नए भारत के पटल पर उभरे नए शहर ‘परम्परा, आधुनिकता और पुनरुत्थान‘ (Tradition, Modernism and Revivalism) के सिद्धाँतों को लेकर आगे बढ़े। जहाँ चंडीगढ़ जैसा आधुनिक शहर और उसकी वास्तुकला ली कोर्बुसिए जैसे मॉडर्निस्ट वास्तुकार की ब्रूटलिस्म से प्रभावित रही, वहीं नए जयपुर को बी वी दोषी जैसे वास्तुकार ने पुरातन और नवीन वास्तुकला के बीच झूलते पुल की तरह डिज़ाइन किया। तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू नए शहरों को भूतकाल की परछाईं से दूर रखकर नए कलेवर में ढालना चाहते थे, इसीलिए उन्होंने कोर्बुसिए, लुई आई कान और मानसिंघ राणा जैसे मॉडर्निस्ट वास्तुकारों को नए आधुनिक भारत गढ़ने की बागडोर सौंपी। हालाँकि पुरातनपंथी बनाम आधुनिक की बहस भी इस बाबत उठी, लेकिन मध्यम मार्ग लेते हुए नया भारत पुरातन और आधुनिक शैली को साथ लेकर उभरा। उस समय सरकार ने शिल्पकारों और स्थानीय कलाकारों को बढ़ावा देने के लिए सरकारी संस्थानों के निर्माण का १ फ़ीसदी हिस्सा बाहरी साज–सज्जा पर लगाने का फैसला भी किया। आई आई टी, एम्स , आई आई एम, जेएनयू जैसे नए शैक्षणिक संस्थानों की वास्तुकला ने एक मॉडल की तरह उभरते भारत की प्रगतिशील तस्वीर कायम करने का काम किया।
जहाँ चंडीगढ़ की इमारतों ने कंक्रीट की संभावनाओं को टटोला, वहीं नई दिल्ली में ग्लास, एक्सपोज़्ड ब्रिक और स्टील के साथ नए प्रयोग किए गए। चंडीगढ़ के हाई कोर्ट, दिल्ली के सुप्रीम कोर्ट और बैंगलोर के विधान सौदा को साथ रखकर देखें तो भारतीय वास्तुकला की तीन विविध धाराएं साथ बहती मिलेंगी। साथ ही लॉरी बेकर, दीदी कांट्रेक्टर और अनिल लॉल जैसे वास्तुकारों ने ‘लो कॉस्ट आर्किटेक्चर‘ यानि कम खर्च वास्तुकला के अद्भुत नमूने रचे, जिससे भारतीय वास्तुकला में एक नया आयाम जुड़ा। देश की मुख्यतः गरीब और बेघर आबादी के सिर पर छत देने के लिए सरकारों ने स्लम डेवलपमेंट और अफोर्डेबल हाउसिंग स्कीम चलाई, जिससे अस्थाई बस्तियों में रहने वालों को पक्का पता और किफ़ायती रिहायश मिली।
हेरिटेज और पुर्नुत्थान
कोलोनियल यानी ब्रिटिश शासन के दौरान बनी इमारतें हों, मध्युगीन किले और महल, या फिर प्राचीन मंदिर हों, हेरिटेज यानी वास्तुकला की विरासत ना सिर्फ हमारे इतिहास का आईना रही हैं बल्कि पर्यटन और राजस्व (रेवेन्यू) के लिहाज़ से भी हमारे लिए बेहद अहम हैं। ताज महल से लेकर एलिफेंटा गुफाओं तक, बौद्ध मॉनेस्ट्री से लेकर पत्थर की नक्काशी वाले मंदिरों तक, भारत की पहचान है यहां की वास्तुकला, जो हर दौर में अलग–अलग सांस्कृतिक प्रभाव के चलते और समृद्ध हुई। आज़ादी के बाद हमारे इसी धरोहर को बचाने और पुनरुत्थान करने के लिए संस्कृति मंत्रालय ने INTACH, ICOMOS जैसी संस्थाओं के ज़रिए कई पुरानी इमारतों का जीर्णोद्धार किया। हेरिटेज वॉक और adaptive reuse के चलते लोगों में पुरानी इमारतों के बारे में जानने की जिज्ञासा और बढ़ी है। इसके कारण पुरातत्त्व विभाग और मुस्तैदी से हमारे इस धरोहर को बचाने में जुटा है। यूनेस्को जैसी अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं ने कई धरोहरों को हेरिटेज टैग देकर अपने संरक्षण के दायरे में लिया है, जिससे भारत की अनूठी हेरिटेज अंतरराष्ट्रीय लाइमलाइट में आई है। ADOPT A HERITAGE जैसी स्कीमों के तहत लाल किले और जंतर मंतर जैसे धरोहरों को निजी संस्थानों के हाथ देकर रख रखाव का ठेका देना भी आज़माया गया है।
भारतीय वास्तुकला पर वैश्वीकरण का प्रभाव
आज सोशल मीडिया और तकनीक के विकास के साथ सारी दुनिया एक सांझा सूत्र में बंध गई है, जिससे वास्तुकला भी अछूती नहीं रह सकी है। वैश्विक अनावरण के साथ दुनियाभर के इमारती सामान और तकनीक की आपस में अदला–बदली का युग शुरू हुआ, जिसके चलते भारतीय वास्तुकला में भी ग्लास फसाड, मॉड्यूलर किचन, फॉल्स सीलिंग, ग्रीक पेडिमेंट जैसी तकनीकों का इस्तेमाल शुरू हुआ। इसी अंधाधुंध अनुसरण के ट्रेंड पर चंडीगढ़ कॉलेज ऑफ आर्किटेक्चर के पूर्व प्रिंसिपल रजनीश वत्स कहते हैं, “There are more Pediments to be seen in Chandigarh than in Athens.” मशहूर आर्किटेक्ट और लेखक गौतम भाटिया ने विदेशी शैली के भारतीय परिवेश में बिना सोचे–समझे दोहराए जाने पर Punjabi Baroque जैसी व्यंग्यात्मक किताब भी लिखी। अफ़सोस यही है कि स्थानीय मौसम, निर्माण सामग्री और स्किल की अनदेखी कर विदेशी इमारतों के डिज़ाइन यहां जबरन आज़माए जा रहे हैं। एयर कंडीशनिंग के बढ़ते इस्तेमाल के कारण फ्लोर हाइट कम रखनी शुरू की गई है, लॉन और बगीचे वाले बंगलों की जगह मल्टीस्टोरी हाउसिंग/फ्लैट्स ने ले ली है। बरामदा, रोशनदान और आँगन भारतीय घरेलू वास्तुकला से गायब होते जा रहे हैं। प्रिट्जकर प्राइज़ विजेता और प्रख्यात वास्तुशिल्पी बी वी दोषी का मानना है, “Verandas are the meeting place between the sacred and profane; the house and the street”. सड़क और घर के बीच के इस बफर का गायब हो जाना, मकानों का एक ही इंपोर्टेड टेम्पलेट पर बनाया जाना, आधुनिक मकानों में ऊर्जा की खपत ज़रूरत से ज़्यादा होना आजकल की बदली हुई वास्तुकला के कुछ असंवेदनशील पहलू हैं।
हालांकि भारतीय परिपेक्ष में संवेदनशील वास्तुकला को भी पर्याप्त तवज्जो दी गई। चार्ल्स कोरिया और अच्युत कनविंदे जैसे वास्तुकारों ने भारतीय जलवायु के अनुकूल इमारतें विकसित की, वही आभा नारायण लांबा और रतीश नंदा जैसे वास्तुकारों ने पुरानी इमारतों को आज की ज़रूरतों के हिसाब से ढालकर फिर से उपयोगी बनाया ! अनुपमा कुंडू , रेवती कामथ और बृंदा सोमाया जैसे वास्तुकारों ने प्रकृति और इमारतों की अद्भुत जुगलबंदी कायम की। राज रेवाल और हबीब रहमान जैसे वास्तुकारों ने सरकारी वास्तुकला को एकरस्ता और गंभीरता की बेड़ियों से आज़ाद कर रचनात्मकता और आधुनिकता का पर्याय बनाया । जहां आधुनिक इमारतों को स्वदेशी कलेवर में ढालकर हफीज कांट्रेक्टर जैसे वास्तुकारों ने हमारी शहरी स्काईलाइन बदल दी, वहीं कई वास्तुकारों ने वर्नाकुलर वास्तुकला के अंश इस्तेमाल कर नई वास्तुकला को नया आयाम दिया। कुल मिलाकर जहां आधुनिक वास्तुकला में रचनात्मक प्रयोग भी हुए, वहीं अंधाधुंध पश्चिमी अनुसरण ने कई तरह से भारत के निर्मित पर्यावरण पर नकारात्मक प्रभाव भी डाला।
आधुनिक धार्मिक वास्तुकला
विभाजन के बाद विस्थापित शरणार्थियों के लिए नई कॉलोनियां तो बसाई गईं मगर सरहद के उस पार छूट गए पुराने गुरुद्वारे, मंदिर और दरगाहें। एक तरफ जहां प्राचीन गुरुद्वारे नानकशाही ईंटों और चूने से बने मिलते हैं, वहीं आधुनिक गुरुद्वारों में संगमरमर और सेरामिक टाइलों का बहुतायत में इस्मेताल होने लगा । यही स्थिति आधुनिक मंदिरों में भी मिलती है, जहां व्यावहारिक कारणों से और स्थानीय प्रभावों के चलते tile cladding का चलन बहुत दिखता है, जबकि प्राचीन मंदिरों में पत्थर की नक्काशी के निशान मिलते रहे हैं। ऐसे में रूप बदलती धार्मिक वास्तुकला भी तेज़ी से बदलते समाज और उसकी आर्थिक क्षमता का अक्स मालूम होती है।
ग्रीन बिल्डिंग और सस्टेनेबिलिटी का काग़ज़ी दोहराव
हर पोस्टमॉडर्न, नियो–लिबरल कांफ्रेंस में निर्माण और वास्तुकला को लेकर ‘सस्टेनेबिलिटी‘ का ज़िक्र ज़रूर आता है लेकिन इसे धरातल पर उतारने के लिए भारतीय वास्तुकारों की पदचाप अभी उतनी गंभीर नहीं हुई है, जितनी तेज़ी से होते जलवायु परिवर्तन की स्थिति में होनी चाहिए। एक ओर जहां ग्रीन बिल्डिंग रेटिंग के माध्यम से नए निर्माण को पर्यावरण के लिए माकूल बनाए जाने को बढ़ावा दिया जा रहा है, वहीं जड़ों की ओर लौटते हुए पारम्परिक निर्माण कला को दोबारा टटोला जा रहा है। निर्माण के लिए बढ़ी रेत–बजरी की खपत के चलते हो रही अंधाधुंध river sand mining या खनन के कारण नदियों और तटों का ह्रास हो रहा है और इस सिलसिले में वास्तुकारों की जमात से ही पहल इस अंधियारी स्थिति को सुधार सकती है। 3डी प्रिंटिंग और प्रीफैब निर्माण के इस दौर में वास्तुकला में बुनियादी फेरबदल करके ही नई इमारतों को सस्टेनेबल बनाया जा सकता है, किसी आभासी ग्रीन रेटिंग द्वारा नहीं।
भविष्य का ब्लूप्रिंट
शहरीकरण ही भविष्य है, 2031 तक भारत की 75% आबादी के शहरी हो जाने की संभावना है। ऐसे में अपने मौजूदा शहरों को दोबारा करीब से देखने की ज़रूरत है। गरीब और बेघर आबादी के लिए अपर्याप्त साधन और रिहायश की व्यवस्था के चलते विकास की रफ़्तार धीमी है। जो शहरी विकास हो भी रहा है, उसे भी कानूनी वैधता के दायरे में रेगुलराइजेशन के शॉर्टकट से ही लाया जाता रहा है। ज़मीन की कमी के चलते मल्टीस्टोरी हाउसिंग ने जगह घेर ली है, जिससे सांस्कृतिक और व्यवहारिक रहन सहन पर गहरा असर पड़ा है। स्मार्ट सिटी के शोर में, मेट्रो और फ्लाईओवर के बिछते जाल में, भूरभुराकर ढहती ऐतिहासिक इमारतों के बैकड्रॉप में, भविष्य की वास्तुकला पर होने वाली एलीट तकरीरें बेमानी लगती हैं। हेरिटेज का टैग लटका कर किसी भी इमारत को म्यूज़ियम में बदल देना भी गैर–मुनासिब कार्यवाही है। पुरानी राजधानियों के मलवे पर नए कैपिटल का रिबन काटना अपने इतिहास से मुंह मोड़ने जैसा है। इसीलिए भविष्य की वास्तुकला तभी सही मायने में सस्टेंबल होगी अगर भूत, वर्तमान और भविष्य को साथ लेकर सही गति से और सही दिशा में आगे बढ़ें।