आज़ाद भारत की वास्तुकला के 75 साल: ऐश्वर्या ठाकुर

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सौजन्य: Yash Parashar/ https://unsplash.com/@lookforyash

 

भारत की मौजूदा वास्तुकला को अगर किसी एक खाँचे में रखकर देखना चाहें तो यह बेहद मुश्किल होगा क्योंकि इतिहास से वर्तमान तक हज़ारों साँस्कृतिक परतें इस देश की मिट्टी तले मौजूद रही हैंजिन्होंने यहाँ की इमारतों और वास्तुकला को अपनेअपने ढंग से प्रभावित किया है। आज़ादी के 75 साल बाद अगर आज हम मुड़कर भारतीय वास्तुकला के सफर पर एक नज़र डालते हैं तो प्राचीन और मध्ययुगीन सभ्यता के पदचिह्न हमारी आधुनिक स्थापत्यकला के पथप्रदर्शक के तौर पर मौजूद रहते हैं। यह कहना जायज़ होगा कि हमारी आधुनिक वास्तुकला की बुनियाद हमारी प्राचीन और मध्यकालीन वास्तुकला पर टिकी है और आज वैश्विक वास्तुकला से प्रभावित होने के साथसाथ अपनी एक विशिष्ट पहचान गढ़ रही है। 

 

आज़ादी के बाद 

 

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सौजन्य : AFP: Le Corbusier standing before the plan of Chandigarh.

 

आज़ादी के बाद उभरे भारत में एक तरफ जहाँ वास्तुकला की अपार सम्भावनाएँ हिलोरे ले रही थीं वहीं विभाजन के चलते लाहौरढाकापेशावरकराची और रावलपिंडी जैसे प्रमुख शहरी केंद्रों के खोने का नुक्सान भी हमारी संयुक्त स्मृति में ताज़ा दर्ज था। पंजाबसिंध और पूर्वी बंगाल के गढ़ खो जाना न सिर्फ राजनैतिक हानि थी बल्कि सांस्कृतिक क्षति भी थी क्योंकि वास्तुकला के लिहाज़ से लाहौरकराचीढाका जैसे शहर अपने समय से आगे थे और शाही किलाबादशाही मस्जिदमोहाटा पैलेससेठी मोहल्लाकर्ज़न हॉल जैसी कई विख्यात इमारतों की पहचान भी थे। आज़ादी के तुरंत बाद इस क्षतिपूर्ति के लिए नई राजधानियाँ बनाने की प्रस्तावना हुई और चंडीगढ़भुवनेश्वरजयपुर और ऑरोविल जैसे नए शहर भारत की स्काइलाइन बनकर उभरे। 

 

नया दौरनए शहर

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फोटो सौजन्य : https://culture360.asef.org/

 

नए भारत के पटल पर उभरे नए शहर ‘परम्पराआधुनिकता और पुनरुत्थान‘ (Tradition, Modernism and Revivalism) के सिद्धाँतों को लेकर आगे बढ़े। जहाँ चंडीगढ़ जैसा आधुनिक शहर और उसकी वास्तुकला ली कोर्बुसिए जैसे मॉडर्निस्ट वास्तुकार की ब्रूटलिस्म से प्रभावित रहीवहीं नए जयपुर को बी वी दोषी जैसे वास्तुकार ने पुरातन और नवीन वास्तुकला के बीच झूलते पुल की तरह डिज़ाइन किया। तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू नए शहरों को भूतकाल की परछाईं से दूर रखकर नए कलेवर में ढालना चाहते थेइसीलिए उन्होंने कोर्बुसिएलुई आई कान और मानसिंघ राणा जैसे मॉडर्निस्ट वास्तुकारों को नए आधुनिक भारत गढ़ने की बागडोर सौंपी। हालाँकि पुरातनपंथी बनाम आधुनिक की बहस भी इस बाबत उठीलेकिन मध्यम मार्ग लेते हुए नया भारत पुरातन और आधुनिक शैली को साथ लेकर उभरा। उस समय सरकार ने शिल्पकारों और स्थानीय कलाकारों को बढ़ावा देने के लिए सरकारी संस्थानों के निर्माण का १ फ़ीसदी हिस्सा बाहरी साजसज्जा पर लगाने का फैसला भी किया। आई आई टीएम्स , आई आई एमजेएनयू जैसे नए शैक्षणिक संस्थानों की वास्तुकला ने एक मॉडल की तरह उभरते भारत की प्रगतिशील तस्वीर कायम करने का काम किया।

जहाँ चंडीगढ़ की इमारतों ने कंक्रीट की संभावनाओं को टटोलावहीं नई दिल्ली में ग्लासएक्सपोज़्ड ब्रिक और स्टील के साथ नए प्रयोग किए गए। चंडीगढ़ के हाई कोर्टदिल्ली के सुप्रीम कोर्ट और बैंगलोर के विधान सौदा को साथ रखकर देखें तो भारतीय वास्तुकला की तीन विविध धाराएं साथ बहती मिलेंगी। साथ ही लॉरी बेकरदीदी कांट्रेक्टर और अनिल लॉल जैसे वास्तुकारों ने  ‘लो कॉस्ट आर्किटेक्चर‘ यानि कम खर्च वास्तुकला के अद्भुत नमूने रचेजिससे भारतीय वास्तुकला में एक नया आयाम जुड़ा। देश की मुख्यतः गरीब और बेघर आबादी के सिर पर छत देने के लिए सरकारों ने स्लम डेवलपमेंट और अफोर्डेबल हाउसिंग स्कीम चलाईजिससे अस्थाई बस्तियों में रहने वालों को पक्का पता और किफ़ायती रिहायश मिली। 

 

हेरिटेज और पुर्नुत्थान 

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सौजन्य: Agha Khan Trust for Culture India

 

कोलोनियल यानी ब्रिटिश शासन के दौरान बनी इमारतें होंमध्युगीन किले और महलया फिर प्राचीन मंदिर होंहेरिटेज यानी वास्तुकला की विरासत ना सिर्फ हमारे इतिहास का आईना रही हैं बल्कि पर्यटन और राजस्व (रेवेन्यू) के लिहाज़ से भी हमारे लिए बेहद अहम हैं। ताज महल से लेकर एलिफेंटा गुफाओं तकबौद्ध मॉनेस्ट्री से लेकर पत्थर की नक्काशी वाले मंदिरों तकभारत की पहचान है यहां की वास्तुकलाजो हर दौर में अलगअलग सांस्कृतिक प्रभाव के चलते और समृद्ध हुई। आज़ादी के बाद हमारे इसी धरोहर को बचाने और पुनरुत्थान करने के लिए संस्कृति मंत्रालय ने INTACH, ICOMOS जैसी संस्थाओं के ज़रिए कई पुरानी इमारतों का जीर्णोद्धार किया। हेरिटेज वॉक और adaptive reuse के चलते लोगों में पुरानी इमारतों के बारे में जानने की जिज्ञासा और बढ़ी है। इसके कारण पुरातत्त्व विभाग और मुस्तैदी से हमारे इस धरोहर को बचाने में जुटा है। यूनेस्को जैसी अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं ने कई धरोहरों को हेरिटेज टैग देकर अपने संरक्षण के दायरे में लिया हैजिससे भारत की अनूठी हेरिटेज अंतरराष्ट्रीय लाइमलाइट में आई है। ADOPT A HERITAGE जैसी स्कीमों के तहत लाल किले और जंतर मंतर जैसे धरोहरों को निजी संस्थानों के हाथ देकर रख रखाव का ठेका देना भी आज़माया गया है।

 

भारतीय वास्तुकला पर वैश्वीकरण का प्रभाव 

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सौजन्य: https://www.100acress.com/dlf-imperial-residences/

 

आज सोशल मीडिया और तकनीक के विकास के साथ सारी दुनिया एक सांझा सूत्र में बंध गई हैजिससे वास्तुकला भी अछूती नहीं रह सकी है। वैश्विक अनावरण के साथ दुनियाभर के इमारती सामान और तकनीक की आपस में अदलाबदली का युग शुरू हुआजिसके चलते भारतीय वास्तुकला में भी ग्लास फसाडमॉड्यूलर किचनफॉल्स सीलिंगग्रीक पेडिमेंट जैसी तकनीकों का इस्तेमाल शुरू हुआ। इसी अंधाधुंध अनुसरण के ट्रेंड पर चंडीगढ़ कॉलेज ऑफ आर्किटेक्चर के पूर्व प्रिंसिपल रजनीश वत्स कहते हैं, “There are more Pediments to be seen in Chandigarh than in Athens.” मशहूर आर्किटेक्ट और लेखक गौतम भाटिया ने विदेशी शैली के भारतीय परिवेश में बिना सोचेसमझे दोहराए जाने पर Punjabi Baroque जैसी व्यंग्यात्मक किताब भी लिखी। अफ़सोस यही है कि स्थानीय मौसमनिर्माण सामग्री और स्किल की अनदेखी कर विदेशी इमारतों के डिज़ाइन यहां जबरन आज़माए जा रहे हैं। एयर कंडीशनिंग के बढ़ते इस्तेमाल के कारण फ्लोर हाइट कम रखनी शुरू की गई हैलॉन और बगीचे वाले बंगलों की जगह मल्टीस्टोरी हाउसिंग/फ्लैट्स ने ले ली है। बरामदारोशनदान और आँगन भारतीय घरेलू वास्तुकला से गायब होते जा रहे हैं। प्रिट्जकर प्राइज़ विजेता और प्रख्यात वास्तुशिल्पी बी वी दोषी का मानना है, “Verandas are the meeting place between the sacred and profane; the house and the street”. सड़क और घर के बीच के इस बफर का गायब हो जानामकानों का एक ही इंपोर्टेड टेम्पलेट पर बनाया जानाआधुनिक मकानों में ऊर्जा की खपत ज़रूरत से ज़्यादा होना आजकल की बदली हुई वास्तुकला के कुछ असंवेदनशील पहलू हैं। 

हालांकि भारतीय परिपेक्ष में संवेदनशील वास्तुकला को भी पर्याप्त तवज्जो दी गई। चार्ल्स कोरिया और अच्युत कनविंदे जैसे वास्तुकारों ने भारतीय जलवायु के अनुकूल इमारतें विकसित की, वही आभा नारायण लांबा और रतीश नंदा जैसे वास्तुकारों ने पुरानी इमारतों को आज की ज़रूरतों के हिसाब से ढालकर फिर से उपयोगी बनाया ! अनुपमा कुंडू , रेवती कामथ और बृंदा सोमाया जैसे वास्तुकारों ने प्रकृति और इमारतों की अद्भुत जुगलबंदी कायम की। राज रेवाल और हबीब रहमान जैसे वास्तुकारों ने सरकारी वास्तुकला को एकरस्ता और गंभीरता की बेड़ियों से आज़ाद कर रचनात्मकता और आधुनिकता का पर्याय बनाया । जहां आधुनिक इमारतों को स्वदेशी कलेवर में ढालकर हफीज कांट्रेक्टर जैसे वास्तुकारों ने हमारी शहरी स्काईलाइन बदल दी, वहीं कई वास्तुकारों ने वर्नाकुलर वास्तुकला के अंश इस्तेमाल कर नई वास्तुकला को नया आयाम दिया। कुल मिलाकर जहां आधुनिक वास्तुकला में रचनात्मक प्रयोग भी हुए, वहीं अंधाधुंध पश्चिमी अनुसरण ने कई तरह से भारत के निर्मित पर्यावरण पर नकारात्मक प्रभाव भी डाला।

 

आधुनिक धार्मिक वास्तुकला

 

विभाजन के बाद विस्थापित शरणार्थियों के लिए नई कॉलोनियां तो बसाई गईं मगर सरहद के उस पार छूट गए पुराने गुरुद्वारेमंदिर और दरगाहें। एक तरफ जहां प्राचीन गुरुद्वारे नानकशाही ईंटों और चूने से बने मिलते हैंवहीं आधुनिक गुरुद्वारों में संगमरमर और सेरामिक टाइलों का बहुतायत में इस्मेताल होने लगा । यही स्थिति आधुनिक मंदिरों में भी मिलती हैजहां व्यावहारिक कारणों से और स्थानीय प्रभावों के चलते tile cladding का चलन बहुत दिखता हैजबकि प्राचीन मंदिरों में पत्थर की नक्काशी के निशान मिलते रहे हैं। ऐसे में रूप बदलती धार्मिक वास्तुकला भी तेज़ी से बदलते समाज और उसकी आर्थिक क्षमता का अक्स मालूम होती है। 

 

ग्रीन बिल्डिंग और सस्टेनेबिलिटी का काग़ज़ी दोहराव

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सौजन्य: https://www.suratdiamondbourse.in/

 

हर पोस्टमॉडर्न, नियोलिबरल कांफ्रेंस में निर्माण और वास्तुकला को लेकर ‘सस्टेनेबिलिटी‘ का ज़िक्र ज़रूर आता है लेकिन इसे धरातल पर उतारने के लिए भारतीय वास्तुकारों की पदचाप अभी उतनी गंभीर नहीं हुई हैजितनी तेज़ी से होते जलवायु परिवर्तन की स्थिति में होनी चाहिए। एक ओर जहां ग्रीन बिल्डिंग रेटिंग के माध्यम से नए निर्माण को पर्यावरण के लिए माकूल बनाए जाने को बढ़ावा दिया जा रहा हैवहीं जड़ों की ओर लौटते हुए पारम्परिक निर्माण कला को दोबारा टटोला जा रहा है। निर्माण के लिए बढ़ी रेतबजरी की खपत के चलते हो रही अंधाधुंध river sand mining या खनन के कारण नदियों और तटों का ह्रास हो रहा है और इस सिलसिले में वास्तुकारों की जमात से ही पहल इस अंधियारी स्थिति को सुधार सकती है। 3डी प्रिंटिंग और प्रीफैब निर्माण के इस दौर में वास्तुकला में बुनियादी फेरबदल करके ही नई इमारतों को सस्टेनेबल बनाया जा सकता हैकिसी आभासी ग्रीन रेटिंग द्वारा नहीं।

 

भविष्य का ब्लूप्रिंट

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Construction work underway as part of the Central Vista Redevelopment Project, at Rajpath in New Delhi,
सौजन्य : PTI

 

शहरीकरण ही भविष्य है, 2031 तक भारत की 75% आबादी के शहरी हो जाने की संभावना है। ऐसे में अपने मौजूदा शहरों को दोबारा करीब से देखने की ज़रूरत है। गरीब और बेघर आबादी के लिए अपर्याप्त साधन और रिहायश की व्यवस्था के चलते विकास की रफ़्तार धीमी है। जो शहरी विकास हो भी रहा हैउसे भी कानूनी वैधता के दायरे में रेगुलराइजेशन के शॉर्टकट से ही लाया जाता रहा है। ज़मीन की कमी के चलते मल्टीस्टोरी हाउसिंग ने जगह घेर ली हैजिससे सांस्कृतिक और व्यवहारिक रहन सहन पर गहरा असर पड़ा है। स्मार्ट सिटी के शोर मेंमेट्रो और फ्लाईओवर के बिछते जाल मेंभूरभुराकर ढहती ऐतिहासिक इमारतों के बैकड्रॉप मेंभविष्य की वास्तुकला पर होने वाली एलीट तकरीरें बेमानी लगती हैं। हेरिटेज का टैग लटका कर किसी भी इमारत को म्यूज़ियम में बदल देना भी गैरमुनासिब कार्यवाही है। पुरानी राजधानियों के मलवे पर नए कैपिटल का रिबन काटना अपने इतिहास से मुंह मोड़ने जैसा है। इसीलिए भविष्य की वास्तुकला तभी सही मायने में सस्टेंबल होगी अगर भूतवर्तमान और भविष्य को साथ लेकर सही गति से और सही दिशा में आगे बढ़ें। 

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